मंशा गुर्जर
राजस्थान देश के उन चुनिंदा राज्यों में है जहां सबसे अधिक पर्यटक आते हैं. इसके लगभग सभी ज़िले पर्यटन मानचित्र में विशिष्ट स्थान रखते हैं. लेकिन जयपुर पर्यटन नगरी होने के साथ साथ राज्य की राजधानी भी है. यहां का हवा महल अपनी अनोखी वास्तुकला के कारण दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है. सालों भर पर्यटकों की भारी भीड़ के कारण यहां रोज़गार के भी काफी अवसर उपलब्ध होते हैं. होटल से लेकर कपड़े और स्थानीय स्तर पर तैयार किये जाने वाले सामान भी खूब बिकते हैं. जिससे न केवल बड़े स्तर के दुकानदार बल्कि छोटे स्तर के असंगठित दुकानदारों की भी इससे रोज़ी रोटी चलती है. जयपुर आने वाले पर्यटक यहां के पारंपरिक पोशाकों के साथ साथ मोजड़ी भी खरीदते हैं. जिन्हें बड़े दुकानदारों के अलावा फुटपाथ पर अस्थाई दुकान लगाकर भी लोग बेच कर आय के साधन अर्जित करते हैं.
राजस्थान की मोजड़ी देश विदेश में प्रसिद्ध है. यह एक प्रकार की जूती है जो बहुत ही हल्की होती है. इसे हाथों से तैयार किया जाता है. इस पर बहुत ही बारीकी से कढ़ाई की जाती है और फिर मोतियों तथा अन्य सजावटी सामान जोड़े जाते हैं. इसके अतिरिक्त कई मोजड़ियों पर नक्काशी और कशीदाकारी भी की जाती है. अस्थाई दुकान लगाकर इसे बेचने वाले नरेश कुमार बताते हैं कि इन मोजड़ियों की सालों भर मांग रहती है. हालांकि शादी और कुछ ख़ास त्योहारों में इसकी बिक्री बढ़ जाती है. वहीं दिसंबर से फ़रवरी तक विदेशी सैलानियों की अधिक संख्या आने से भी उनकी काफी मोजड़ियां बिकती हैं. टोंक के ग्रामीण क्षेत्र के रहने वाले 55 वर्षीय नरेश बताते हैं कि हाथों से तैयार किये जाने के कारण यह काफी महंगे होते हैं. वह इन्हें बड़े दुकानदारों से खरीद कर बेचते हैं. जिसमें इन्हें बहुत अच्छी आमदनी नहीं हो पाती है. वह कहते हैं कि सीज़न के अन्य दिनों में इसकी मांग तो रहती है लेकिन बिक्री में काफी गिरावट आ जाती है. जिससे घर का खर्च निकालना भी मुश्किल हो जाता है.
नरेश बताते हैं कि एक मोजड़ी की सबसे कम कीमत भी करीब एक हज़ार रूपए के आसपास होती है. अक्सर देसी पर्यटक इसे कम दामों पर खरीदना चाहते हैं, लेकिन अगर हम इसके दाम कम कर देंगे तो हमारी खरीदारी की लागत भी नहीं निकल पाएगी. इसलिए मैं अक्सर विदेश पर्यटकों को इन्हें बेचने को प्राथमिकता देता हूं. कई बार कुछ देसी पर्यटक भी इसे मुंह मांगी कीमत पर खरीद लेते हैं. जिससे हमारी अच्छी बिक्री हो जाती है. वह कहते हैं कि मशीनी युग में अब मोजड़ी हाथ की जगह मशीन से तैयार की जाती है. जिसमें वह खूबसूरती नहीं होती है जो हाथों से तैयार किये हुए मोजड़ी में नज़र आती है. रोज़गार के संबंध में नरेश बताते हैं कि गांव में रोज़गार का कोई साधन नहीं होने के कारण करीब बारह वर्ष पहले वह जयपुर आ गए थे. आठ साल उन्होंने इन मोजड़ी बनाने वाले कारखाना में काम भी किया है. जब इन्होने अपना स्वरोज़गार शुरू करने का निर्णय लिया तो इसी को बेचने का विचार किया क्योंकि यहां काम के अनुभव की वजह से इन्हें माल खरीदने में आसानी होती है. नरेश कहते हैं कि अनुभव के आगे पैसे की कमी आ जाती है. आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण वह स्थाई दुकान खोलने में भी सक्षम नहीं हैं.
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